
देश के राजनीति में यात्राओं का बहुत महत्त्व है. अक्सर नेता जनता के बीच जाने के लिए इन यात्राओं का सहारा लेते है. मगर अब वो दिन गए जब नेताओ को जनता के दिल में जगह बनाने के लिए कई किलोमीटर्स की यात्राएं करनी पड़ती थी. उन यात्राओं में होने वाले बेहिसाब खर्च भी कई बार चुनावी वोटो में बदल नहीं पाते है. जमाना सोशल मीडिया का है. आज कौन नेता कैसा है, जनता को ये बताने के लिए आज किसी नेता को किसी यात्रा वाली राजनीति की जरूरत नहीं होती. साफ़ नियत और सही नीतियों की जरूरत होती है.
झारखंड की जनता ने तो बेहिसाब खर्चो वाली इन यात्राओं वाली पॉलिटिक्स को पहले ही धुल चटा दिया है. इससे पहले 2019 के चुनाव में रघुवर दास की सरकार ने भी जन आशीर्वाद यात्रा निकाला था. मगर जब काम होगा नहीं, तो जनता यात्राओं में आने वाली भीड़ देकर अपने घरो का चूल्हा नहीं जलायेगी. रघुवर दास की सरकार जन आशीर्वाद यात्रा के बावजूद सत्ता गंवा बैठी. जन आशीर्वाद यात्रा की शुरुआत के लिए भी संथाल को चुना गया था और उसका अंत भी वर्तमान की संकल्प यात्रा की तरह कोल्हान में किया गया था. इतनी बड़ी यात्रा का नतीजा सबसे बड़ी हार के रूप में सामने आया. यात्रा के केंद्र में रहे दोनों प्रमंडलों में भाजपा का सुपड़ा साफ हो गया था. यहां तक की खुद तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास कोल्हान प्रमंडल में अपने विधानसभा सीट (जमशेदपुर पूर्वी) से चुनाव तक हार गए थे.
झारखंड के पूर्व बीजेपी अध्यक्ष दीपक प्रकाश ने भी रांची में आदिवासी समाज को भाजपा से जोड़ने के लिए बिरसा मुंडा विश्वास रैली की थी. अंजाम आज सबके सामने है. आदिवासी समाज से निकलकर झारखंड के पहले युवा मुख्यमंत्री बनने वाले हेमंत सोरेन का विरोध करने वाले नेताओ की दाल नहीं गली.
अब 2006 से 2019 तक झारखंड विकास मोर्चा बनाकर आम लोगो को भाजपा, नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ भड़काने वाले बाबूलाल मरांडी के सहारे बीजेपी सत्ता का संकल्प लेना चाहती है. इम्पोर्टेड नेता बाबूलाल मरांडी के सहारे बीजेपी को सत्ता का रास्ता दिख रहा है. ये बात अलग है कि बाबूलाल मरांडी भाजपा में गए तो उनकी चाल ही बदल गयी. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के समर्थन से कोडरमा में चुनाव लड़ने वाले बाबूलाल के लिए अब कांग्रेस ही गलत हो गयी. 2019 विधानसभा चुनाव में वे भले ही महागठबंधन से अलग रहे, मगर अपनी राजनीति बीजेपी के खिलाफ की. जमकर मोदी, योगी, बीजेपी और अमित शाह के विरोध का ढोल पीटा. मगर जनता ने बाबूलाल मरांडी के राजनीति की गाडी ही पंचर कर दी. मुश्किल से तीन सीटों के आगे जेवीएम बढ़ नहीं सकी. यानी जनता ने मरांडी के राजनीति को हमेशा के लिए गुड बाई बोल दिया. अपनी राजनैतिक पहचान खो चुके बाबूलाल ने अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए नैतिकता को भी धो डाला और पूरी पार्टी को एक तिहाई के साथ बीजेपी में विलय करा दिया. यानी जिस पार्टी के खिलाफ लड़कर चुनाव जीते, उसी पार्टी में आगे चलकर शामिल हो गए.
तीन साल तक नेता प्रतिपक्ष बन नहीं पाए, तो बीजेपी ने आदिवासी मूलवासी के नाम पर उन्हें ही पार्टी का नेतृत्व सौंप दिया. अब नेगेटिव इमेज के साथ बाबूलाल बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष तो बन गए, मगर यात्रा वाली वही घिसी पिटी राजनीति के साथ क्या वो भाजपा को उसका खोया हुआ मुकाम वापस दिलवा पाएंगे. जो रघुवर दास, दीपक प्रकाश और अर्जुन मुंडा सरीखे प्रदेश के कद्दावर नेता नहीं दिलवा पाए. क्योकि प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद पहला उपचुनाव लड़ने से भाजपा ने खुद को अलग कर दिया और गेंद आजसू के पाले में डाल लिया. ताकि डुमरी में हार हो तो आजसू जिम्मेदार होगी, और जीत हो तो क्रेडिट मरांडी ले जाएंगे.