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हेमंत सोरेन सरकार में सशक्त हो रही है आदिवासी समाज की पारंपरिक न्याय व्यवस्था, मानकी-मुंडाओं की अदालत में भेजे जा रहे दशकों पुराने मामले

रांची: झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार के दौरान आदिवासी समाज की न्याय व्यवस्था और भी ज्यादा सशक्त हो रही है। अब दशकों पुराने मामले मानकी-मुंडाओं की अदालत में भेजे जा रहे है, जिससे वर्षो तक अटके मामलों का जल्द से जल्द निष्पादन हो जा रहा है। चाईबासा में देश के पहले आदिवासी कोर्ट ने महज 3 सुनवाई में ही 20 साल पुराने मामले का निष्पादन करके डीसी को फैसले की प्रति भेज दी है। ये अपने आप में एक बड़ी मिसाल है। पिछले साल ही डीसी की ओर से इस मामले को मानकी-मुंडाओं की अदालत में भेजा गया था।

क्या है मामला?

सोनाराम और नारायण के बीच वर्ष 2002 में जमीन विवाद शुरू हुआ। सोनाराम ने चाईबासा डीसी कोर्ट (सिविल कोर्ट) में नारायण के खिलाफ केस किया। इस दौरान दोनों के बीच मारपीट और लड़ाई-झगड़े होते रहे, पर फैसला नहीं आया।

चाईबासा सिविल कोर्ट में पिछले साल न्यायपंच कार्यालय (आदिवासी कोर्ट) खुला तो कोर्ट ने केस वहां ट्रांसफर कर दिया। शासन की ओर से नियुक्त न्यायपंच मानकी (क्षेत्रीय पंचप्रधान) मुंडाओं (ग्राम पंचप्रधान) ने यह विवाद सिर्फ तीन सुनवाई में सुलझाकर हाल ही में डीसी कोर्ट को यह फैसला भेज दिया।

कोर्ट अब जल्दी ही यह फैसला सुनाने वाला है। वहीं दो दशक के बाद दोनों परिवारों के बीच दुश्मनी भी खत्म हो गई। चाईबासा के आदिवासी कोर्ट में आया यह पहला केस है।

दरअसल, झारखंड के जनजातीय क्षेत्र कोल्हान में सदियों से चली आ रही आदिवासियों की पारंपरिक न्याय व्यवस्था को पहली बार अमली जामा पहनाया गया है। इस इलाके में गैर आपराधिक मामलों के निराकरण के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) प्रभावी नहीं है।

जानिए…कैसे काम करती है न्यायपंच व्यवस्था:

केस कोल्हान अधीक्षक, एडीसी या डीसी कोर्ट में दर्ज होता है। ये कोर्ट उस केस को न्यायपंच के पास भेेजते हैं। न्यायपंच कोल्हान का कोई मानकी होता है, जिसे डीसी नॉमिनेट करता है। न्यायपंच वादी व प्रतिवादी को बुलाकर पक्ष रखने के लिए एक मध्यस्थ मानकी या मुंडा चुनने को कहता है।

फिर वादी-प्रतिवादी के दोनों प्रतिनिधि आपसी सहमति से एक अन्य मानकी-मुंडा को चुनते हैं, जिन्हें न्याय संयोजक कहा जाता है। तीनों के नाम संबंधित कोर्ट को अनुमोदन के लिए भेज दिए जाते हैं, जहां से केस रेफर होकर आया है।

फिर दोनों प्रतिनिधि व न्याय संयोजक केस की सुनवाई करते हैं। न्याय संयोजक कोर्ट मोहर्रिर के जरिए अपना फैसला कोर्ट को भेज देता है। जहां अंतिम फैसला सुना दिया जाता है। यदि कोई पक्ष फैसले से सहमत नहीं है तो व कमिश्नर या वहां से हाईकोर्ट में अपील कर सकता है।

पहले केस का ऐसे फैसला:

तांतनगर के सोनाराम बिरूली की जमीन पर नारायण बिरूली ने दावा ठोंक दिया। सोनाराम ने डीसी कोर्ट में केस फाइल किया। 20 साल केस अटका रहा। मार्च 22 में इसे न्यायपंच के पास भेजा गया। प्रभारी न्यायपंच ने सोनाराम व नारायण को बुलाया, लेकिन सोनाराम नहीं आया। मानकी-मुंडाओं काफी कोशिश के बाद सोनाराम आया।

सोनाराम ने मुंडा सुभाष बिरूली व नारायण ने मुंडा प्रताप सिंह कालुन्डिया को मध्यस्थ चुना। मानकी शिवचरण पाड़ेया न्याय संयोजक बनाए गए। तीनों ने सुनवाई शुरू की। पहली ही सुनवाई के बाद दोनों नियमित रूप से सुनवाई में आने लगे। तीन-चार बैठकों के बाद फैसला हो गया। कोर्ट मोहर्रिर पवन तांती ने रिपोर्ट तैयार कर फैसले के लिए डीसी कोर्ट को भेज दिया।

क्या कहतें हैं आदिवासी न्याय व्यवस्था के कर्ताधर्ता?

मानकी-मुंडा संघ के सलाहकार व अधिवक्ता महेंद्र दोराईबुरू के मुताबिक यहां सीपीसी लागू नहीं है। आजादी के बाद भी बिहार कोल्हान सिविल जस्टिस एक्ट 1978 के जरिए यही न्याय व्यवस्था लागू की गई है। पहले केस में प्रतिवादी के मुंडा रहे प्रताप सिंह कालुन्डिया बताते हैं कि आदिवासी अपने ज्यादातर मामले खुद ही सुलझाते हैं। कोर्ट-कचहरी में पैसा खर्च होता है जो गरीबों के पास नहीं होता। अब उन्हें कोर्ट के चक्कर नहीं लगाने पड़ रहे हैं।

प्रशासनिक व्यवस्था के कारण यह प्रभावी हुआ:

मानकी मुंडा संघ के अध्यक्ष मानकी गणेश पाट पिंगुआ कहते हैं कि हमारी पारंपरिक न्याय व्यवस्था यही है। हम सभी मामले आपसी सहमति से ही निपटाते आए हैं। न्यायपंच कार्यालय के प्रभारी मानकी मानकी शिवचरण पाड़ेया का कहना है कि यहां फैसले विल्किंसन रूल के मुताबिक ही होते रहे हैं, लेकिन स्थाई प्रशासनिक व्यवस्था के कारण यह ज्यादा प्रभावी हो गया।

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